Saturday, November 18, 2017

क्या ग्रामीण पत्रकारिता का अस्तित्व रह पायेगा...

क्या ग्रामीण पत्रकारिता का अस्तित्व रह पायेगा ...
1990 के बाद जब भारत में पत्रकारिता विशेषकर टीवी पत्रकारिता की शुरुआत हुयी तो पूरे पत्रकारिता जगत में परिवर्तन आना शुरु हुआ। लेकिन महज 10 वर्ष के भीतर यानि वर्ष 2000 के बाद पत्रकारिता का स्वरूप बहुत बदला हुआ दिखा। शहरी पत्रकारिता मशीनों के आने से आसान हुयी तो चुनौती भी बढ़ी। समाज में भी स्वीकार्यता बढ़ी लेकिन ग्रामीण अंचलों में काम करने वालों के लिए दौर कठिन ही होते चले गये। अखबारों के अंक क्षेत्रीय हुए तो ग्रामीण पत्रकारों की जिम्मेदारियाँ बढ़ी। उसके साथ नया करने और मशीनी होने का भी दबाव बढ़ा।
            भारत गाँवों का देश कहा जाता है जहाँ की तीन-चौथाई आबादी अब भी गाँवों में बसती है। समय बीतता गया तो ग्रामीण अंचलों के विकास का भी स्वरूप बदला। इसी तरह पत्रकारिता में भी बदलाव आये। ये बदलाव मशीनी स्तर पर ज्यादा थे। अखबारों के जिला स्तर पर अंक निकलने लगे। पहले जहाँ तहसील स्तर के पत्रकार होते थे अब वहाँ थाना और ब्लॉक स्तर पर पत्रकार होने लगे। क्योंकि अंक क्षेत्रीय होने से जरूरत भी ज्यादा पड़ी। हर स्थिति में ग्रामीण पत्रकार खबर संकलन और भेजने का काम करने लगा। पहले बेसिक फोन। फिर फैक्स। फिर इंटरनेट। उसके बाद ब्रॉडबैंड और अब मोबाइल, टैब का दौर आ गया था। लेकिन ग्रामीण पत्रकारों के समक्ष चुनौतियाँ कई स्तर बढ़ती चली गयीं।
            इस पेशे को लेकर ग्रामीण अंचल में समस्याएँ अधिक हुयी हैं। समस्याएँ दो हैं- आर्थिक और सामाजिक। क्योंकि एक तो श्रम का रिटर्न (मेहनताना) अच्छा नहीं मिलता। यानि अनियमित तनख्वाह। दूसरा खुद अखबार/संस्थान से पहचान पूरी नहीं मिलती जिससे सामाजिक स्तर पर सम्मानजनक पहचान न तो अखबार देता है और न ही समाज। संस्थान या कहा जाय कि उनके क्षेत्रीय कार्यालय सिर्फ अपने कार्यालय के लोगों को पत्रकार और सहयोगी मानता है जिलों के सुदूर क्षेत्र में संस्थान के लिए काम करने वाले संवादसूत्र के रूप में देखा जाता है। आर्थिक आधार पर भी ऐसे पत्रकार कम (की तरह) संवादसूत्रों से विभेद किया जाता है। जितनी मेहनत होती है उसका सही मायने में अर्थ (वेतन) नहीं मिलता। इसीलिए आज ग्रामीण अंचलों में पत्रकारिता करने वाले पत्रकार कम संवादसूत्र पत्रकारीय कर्म को द्वितीयक और मोटे आर्थिक स्रोत वाले कार्य को प्रमुखता देते हैं। क्योंकि यदि ऐसा न किया जाये तो कई दफा उनके और परिवार के सामने दो जून की रोटी के लाले पड़ जाते हैं। रमन मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त  और ग्रामीण पत्रकारिता के जाने-माने नाम पी साईनाथ भी कहते हैं कि ग्रामीण पत्रकारों क बहुत ही कम वेतन पर गुजारा करना पड़ता है, जिसकी वजह से उन पर दबाव ज्यादा होता है। पत्रकार संगठनों की कमी और कॉन्ट्रैक्ट (ठेका) आधारित नौकरी के चलते पत्रकारों की स्वतंत्रता खत्म हो रही है।
            संस्थान से पहचान और सम्मान के स्तर पर भी विभेद होता दिखता है जिसका असर उनके खबरों की गुणवत्ता में भी झलकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि अनेक ऐसी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय, सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएँ हैं जो पत्रकारों को उनके काम के बदले पुरस्कार देकर उनका सम्मान और उत्साहवर्धन करती हैं। लेकिन संस्थान अपने ग्रामीण अंचल के पत्रकारों के लिए कुछ नहीं करता। वह अपने सिटी ऑफिस से चंद नामों को निहारता है और उन्हीं में से नाम भेज देता है। जबकि यदि ऐसे मौके ग्रामीण पत्रकार को दिये जायें तो निश्चित वह आगे और भी अच्छे परिणाम दे सकते हैं। इसके अलावा ग्रामीण पत्रकारिता में खबरों के संकलन से लेकर भेजने तक की चुनौती होती है। आज तो स्थिति यह है कि इतने के बावजूद दबाव के साथ अपेक्षा की जाती है कि कोई नयी धमाकेदार और सनसनीखेज जानकारी परोसती खबर भेजी जाये। क्योंकि अखबार बाजार के नजरिये से अब खुद को देखकर आगे बढ़ रहा है जहाँ मुनाफा महत्वपूर्ण है। और यह तभी सम्भव है जब कुछ नया हो। कोई धमाकेदार और सनसनीखेज खबर हो। बिल्कुल वैसे जैसे शैक्षणिक संस्थानों में पत्रकारिता के छात्रों को बताया जाता है कि आदमी कुत्ते को काट ले तो सबसे बड़ी खबर होगी। तभी अखबार की बिक्री ज्यादा होगी और माँग बढ़ेगी। माँग बढ़ेगी तो मुनाफा भी बढ़ेगा। वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी कहते हैं कि आज स्थिति यह है कि संस्थानों को सिर्फ पैसे चाहिए। यदि इसके एवज में विज्ञापनों को खबरों की शक्ल में बनाने के पैसे मिल रहे हैं तो संस्थान वो भी काम कर रहा है। वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार कहते हैं कि ग्रामीण पत्रकार ही क्या, ग्रामीण पत्रकारिता ही अब समाप्त की जा रही है। आज प्रश्न पूछने की कला समाप्त हो रही है और दूर ग्रामीण इलाके में कोई भूख से मर जाता है तो ग्राउंड रिपोर्टिंग के बजाय दिल्ली के स्टूडियो में चंद नेता पूरे मामले पर अपना ज्ञान सामाजिक, आर्थिक विशेषज्ञ के रूप में दे देता है। राजस्थान के इलाके में 16 दिनों से भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसान व उनका परिवार भूमि सत्याग्रह कर रहे होते हैं तो भी शहरी मीडिया में कोई हलचल नहीं होती। गाँव के बाहर जाकर पढ़ने के बजाय गाँव के स्कूल को इंटरमीडिएट तक करने और शिक्षकों की उपलब्धता की माँग करते हरियाणा में धरने पर बैठी छात्राओं को कुछ सप्ताह बाद शहरी मीडिया को दिखाने का मौका मिलता है। नॉर्थ ईस्ट के प्रदेशों में महीनों तक संदिग्ध उग्रवादी पुलिस की गोली का शिकार होता है और महीनों लोग विरोधस्वरूप मृतक का अंतिम संस्कार नहीं करते हैं तथा कर्फ्यू जैसा माहौल रहता है लेकिन कहीं कोई खोज खबर नहीं होती। ये ग्रामीण पत्रकारिता और पत्रकार के अस्तित्व पर बहुत बड़ी चोट है। ग्रामीण पत्रकारों को कभी-कभी खबरों को निकालने में शारीरिक व मानसिक वेदना एवं जान गंवाने तक का खामियाजा भी झेलना पड़ता है। अब ग्रामीण पत्रकार भी करे क्या। कहाँ जाए अपने व्यथा की शिकायत करने। वह भी बेरोजगार होने, सामाजिक सम्मान खोने, विशेष होने का तमगा छूटने आदि की फिक्र से घिरा होता है। इस सोच के पोषक आज हम बनते जा रहे हैं और इसीलिए इसका असर हमारे काम पर पड़ता नजर आ रहा है। यह परिवर्तन ज्यादा नकारात्मक ही हुआ है अबतक। सकारात्मक कम रहा है।
            इतने भयानक स्थितियों के बावजूद उम्मीद की कुछ किरण नजर आती है। अनेक लोगों ने खुद से प्रयास कर ग्रामीण इलाकों में सूचनाओं के प्रचार-प्रसार के लिए अखबार शुरु किया और ग्रामीण क्षेत्रवासियों को उनमें लगाया जिसका परिणाम भी अच्छा देखने को मिला। फिर भी सरकार को इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठाने की जरूरत है। मजीठिया वेज बोर्ड को सरकार को सबसे पहले मजबूती और कड़ाई से लागू करना चाहिए ताकि कम से कम आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। इसके बाद कानूनी सुरक्षा प्रदान करने के लिए ठोस कदम उठाये ताकि कोई रामचंद्र छत्रपति, राजदेव, हेमंत, जगेन्द्र और गौरी लंकेश जैसे हत्याएँ न हों।
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सिद्धार्थ यादव
पी.जी. डिप्लोमा इन टी.वी. जर्नलिज्म
जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली
सम्प्रति- जनसंदेश टाइम्स, वाराणसी में पत्रकार और ब्यूरो चीफ

मो- 7678815312

Monday, March 7, 2016

आजादी : सही या गलत

हमें चाहिए आजादी 
हम लेके रहेंगे आजादी
आतंकवाद से आजादी
सामंतवाद से आजादी
पूँजीवाद से आजादी
भुखमरी से आजादी
जातिवाद से आजादी
वर्णवाद से आजादी
साम्प्रदायिकता से आजादी
इन नफरतों से आजादी
दंगाइयों से आजादी
भ्रष्टाचारियों से आजादी
जुमलेबाजों से आजादी
है हक हमारी आजादी
हम लेके रहेंगे आजादी ।।
इंकलाब इंकलाब इंकलाब जिंदाबाद ।।

(ये उन नारों के अंश हैं जो JNU में छात्रों द्वारा चीख-चीखकर लगाया गया जिनकी आजादी का अर्थ अलग-अलग निकाला गया ...)

पूछना चाहता हूँ सारे लोगों से कि इस नारे में ऐसा कौन सा शब्द या पंक्ति है जिससे देशद्रोह की बू आती है। दूसरी चीज कि मामला न्यायालय में है और उसके पहले देशद्रोह का आरोपित कहना ठीक रहेगा, क्योंकि अगर कल देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था माफ कर दे तो क्या आप उन लोगों को मार देंगे ?
तीसरी चीज कि इस देश का सिपाही देश की रक्षा करते हुए मारा जाता है और महीनों तक उसकी बेवा अपने परिजनों, बच्चों के साथ अपने हक की माँग करती है लेकिन उसे उसका हक नहीं मिलता
क्रिकेट में भारत जीतता है तो उसे लोग, राजनीतिक दल और संसद सम्मानित करती है, धन और सम्पत्ति की बरसात होती है लेकिन अगर कोई जवान मरता है तो उसके परिवार को अपना हक लेने के लिए भी न जाने क्या-क्या बेचना पड़ता है। अगर उसका पिता, उसकी माँ या बेवा ऐसे भ्रष्ट अधिकारी से आजादी की बात करे तो क्या उस पर देशद्रोह का मुकदमा चलना चाहिए ?
मुगलसराय के चंधासी गाँव चंदौली जिले का दिव्यांगों का विशेष कैंप लगता है जिसमें अगर बच्चों को पोषण युक्त भोजन, सम्मानजनक स्थिति में भोजन की व्यवस्था और ठंड से ठिठुराई पर रजाई, गद्दा-तोसक और बिस्तर न मिले, उनके शारीरिक कमी को दूर करने वाले कृत्रिम अंग न मिले तो इसे क्या कहेंगे। धान का कटोरा नाम से विख्यात चंदौली जनपद का किसान अगर आपदा, ओलावृष्टि या अन्य कारणों से बर्बाद खेती का मुआवजा माँगे और उसे शासन-प्रशासन न दे तो फिर क्या कहा जाएगा ? जिस दिन उन दिव्यांगों माता-पिता जिला प्रशासन, बेसिक शिक्षा विभाग के अधिकारी और समन्वयक् से उक्त सारी सुविधाएँ माँगें और कहें कि हमें आजादी चाहिए तो क्या देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाये ?
किसान मुआवजा माँगे और कहे कि भ्रष्ट प्रशासन से आजादी चाहिए तो क्या उस पर सेडिशन का आरोप चले और फाँसी दे दी जाये ?
यदि पत्रकार अपने साथियों के साथ सुप्रीम कोर्ट में हुए मारपीट के खिलाफ निष्क्रिय पुलिस-प्रशासन और अराजक तत्वों के खिलाफ नारेबाजी करते हुए न्याय की माँग करें तो क्या पत्रकारों को देशद्रोही कहा जाए ?

अगर आप कहते हैं कि ऐसे भ्रष्ट तंत्र से मुक्ति चाहिए और मैंने कहा कि ऐसे भ्रष्ट तंत्र से हमें आजादी चाहिए तो क्या गलत है इसमें ?

Friday, November 8, 2013

छात्रसंघ आग की तरह, इस्तेमाल अलग-अलग


छात्रसंघ को लेकर पूरे समाज में दो तरह की धारणाएं चल रही हैं। एक धारणा यह है कि छात्रसंघ महत्वहीन है, अराजकता को जन्म देता है और पठन-पाठन का विनाशक है। दूसरी धारणा यह है कि छात्रसंघ उपयोगी है, छात्र हित में कार्य करता है और राजनीति का नर्सरी है। इन्हीं दो विचारधाराओं के बीच हमें भी कुछ सोचना पड़ता है। दरअसल, छात्रसंघ आग की तरह है, चूल्हे में रखो तो भोजन पकाता, झोपड़ी पर फेको तो आशियाना जला देता है। निर्णय छात्रों को लेना है कि इस आग का इस्तेमाल कैसे किया जाये।

सही मायनों में देखा जाये तो छात्रसंघ छात्रों की बुनियादी लड़ाई लड़ने के लिए बना। जैसा कि समस्त संघों का अन्तिम घोष वाक्य है कल्याण करना। उसी तरह छात्रसंघ भी छात्रों के कल्याण के लिए बना। साथ ही यह राजनीति का नर्सरी भी है। राजनीति में अपराधियों के प्रेवश पर रोक लगाने की क्षमता छात्रों में है। छात्रसंघों की राजनीति से निकले राजनेता माफियाओं से बेहतर होते हैं, क्योंकि वे राजनैतिक संस्कृति को जी कर आते हैं। जबकि माफियागिरी से निकला राजनेता हाथ जोड़ना नहीं, बल्कि हाथ छोड़ना जानता है। भारतीय राजनीति में छात्रसंघ की पृष्ठभूमि से निकले कई राजनेता हैं जिनका आचरण और व्यवहार औरों से अलग है।

वर्तमान में लिंगदोह समिति की सिफारिशों के आधार पर छात्रसंघों का गठन हो रहा है और इसके बेहतर परिणाम भी सामने हैं। शत-प्रतिशत अराजकता से अब 50-50 का मामला बन गया है। अगर इसी तरह सुधार होता रहा तो अच्छे परिणाम भी सामने आयेंगे। वैसे अभी छात्रसंघ को स्प्रिंग बोर्ड की तरह इस्तेमाल करने की भावना प्रबल है और इसका लाभ राजनैतिक दल उठा रहे हैं। लेकिन अपने स्वरूप को छात्रसंघ को पहचानना चाहिए औऱ सामाजिक परिवर्तन के प्रबल अव्यव के रुप में स्थापित करना चाहिए।

डॉ. अनिल यादव

विभागाध्यक्ष, अंग्रेजी विभाग
लाल बहादुर शास्त्री स्नातकोत्तर महाविद्यालय
मुगलसराय।
मो. 9415201001

anilyadav.mgs@gmail.com

चाँद ढल गया


चाँद ढल गया
                                  - डॉ अनिल यादव

उसको अपने स्कूल के इर्द-गिर्द कई बार मँडराते देखा। वह बूढ़ी औरत। उम्र लगभग 55-60। शरीर पर एक साधारण सी साड़ी। बाल सफेद और बिखरे हुए। ठीक 11 बजे आती। गेट के सामने खड़ी होती। अपलक स्कूल को देखती और पीछे मुड़कर चली जाती। मैंने स्कूल के अध्यापकों से उस बूढ़ी औरत के बारे में पूछा पर कोई नहीं बता पाया। आया भी नहीं जानती थी।

एक दिन मैं गेट पर खड़ा हो गया। जब वह औरत आई तो मैंने उसे ससम्मान प्रणाम किया और उसके लगातार वहाँ आने का कारण पूछा। वह जमीन पर बैठने लगी। मैंने उसे सहारा देकर प्रधानाध्यापक कक्ष में ले आया। बैठने के बाद उसने कहना शुरु किया। बाबूजी! हमार नाम भगजोगनी है। हम मल्लाहिन हैं। हमरी शादी शिव मल्लाह से भयी थी। 30-35 साल पहले। हमको तीन बेटा थे। एक बेटी है। भगेलू, स्वारथ, छोटका और बेटी छुटकी। गंगा किनारे हमार गाँव है शंकरपुर। नैया खेना, मछली मारना और बजार में बेचना हमार काम रहा। लेकिन अब न तो पति है और न हीं बेटवा। सबे गंगा मैया के भेंट चढ़ गये। दिन-रात गंगा मैया के सेवत रही। घरे में असली घी के दीया देखावत रही पर चार साल में हमरे आदमी, हमरे बचवन के अपनी गोदी में समा लिहिन।

तीन-तीन ठे लाल हेरा गयेन। कोई बाढ़ में दूसर के जान बचावत, तो कई मछली मारत मरा। छोटका के एक साहब जबरी ओह पार ले गयेन और जब वापस नैया से आवत रहा तो चकरवात में फँस गवा। चार दिन बाद लाश मिलै हमे। कुछ देर साँस लेने के बाद उसने फिर बोलना शुरु किया।

बाबूजी हमरी एक बिटिया है छुटकी। जूठा बरतन धोवत है। चौका-बरतन हमहुँ करीत है। जिनगी कौनो तरह चल जात है। उतारल साड़ी कपड़ा मिल जात है। तर-त्योहार पर नयो साड़ी मिलत है। ओका छुटकी के शादी बदे रख देइत है। छुटकी ही जीवन क सहारा हव।

हमके जादू-टोना करे वाली डाइन मत समझिह बाबूजी। स्कूल तो हम खाली एही बदे आ जाइत है कि बचवन के खेलत-कूदत और पढ़त अच्छा लगत है। हमरो बचवा पढ़त-लिखत रहतन, त इ हालत न होत न बाबूजी। उसकी आँखों से झर-झर आँसू गिरने लगे। तीन-तीन बेटों को खोने का गम दिखाई पड़ रहा था। मैंने अपने हाथों से उस औरत को पानी पिलाया। मेरे मुँह से शब्द नहीं निकल पा रहे थे।


बाबूजी हम जाइत है। कई दिनन से माँड़-भात खात मन भर गवा है। आज आलू खरीद के घरे ले जाब बाबूजी चोखा बदे। इतना बोलकर वो सीढ़ियाँ सम्भल-सम्भल उतरकर गेट की तरफ चली गयी।

उप सम्पादक
आरोह अवरोह
(पटना से प्रकाशित मासिक पत्रिका)
मो. 9415201001
anilyadav.mgs@gmail.com

Thursday, August 15, 2013

एक और मुसाफिर ( अरशद पाकिस्तानी का गीत )

1965 का वो साल था कानपुर का वो अस्पताल था
जहाँ जन्म मेरा हुआ वो देश हिंदुस्तान था 

कुछ पल ही सही इस देश की आवो हवा पर हमारा भी अधिकार था
वक्त का तकाजा कहे या फिर अपने मुकद्दर का

न चाह के भी हमें सरहद के उस पार जाना था
वही इंसान वही हवा वही पानी पर देश पकिस्तान था

सदिया बीती समय बदला हमने जवानी की दहलीज पे कदम रखा
बचपन बीता जवानी आयी मस्ती छूटी जिम्मेदारी आयी
दोस्ती छूटी   छूटी यारी  अब तो परिवार की थी बारी

 1992 का वो निकाहनामा हमें कबूल था
हम पाकिस्तानी पर हमें हमारा यार हिंदुस्तानी ही मंजूर था

बड़े शौक से  हमने उनको फूलो से सजी इस्लामाबाद की डोली में बिठाया
हमने उनको लाहौर घुमाया  कराची घुमाया और इस्लामाबाद भी दिखाया

पर न जाने क्यों उन्हें हमारा शहर राश न आया
और रो  रो के वतन वापसी का नारा लगाया

उनकी तड़प हम सह न पाए और सरहद तोड़ भारत आये
पर सब कुछ जान के भी यहाँ के लोग हमारे हालात समक्ष न पाये

टूटी झोपड़ी का आशियाना और रिक्सा-ट्राली हमारे जीवन का सहारा बना
एक मुसाफिर की तरह जीना अब हमारे जीवन का फ़साना बना

 पर कमबख्त किस्मत ने यहाँ भी हमारा साथ न निभाया
पाकिस्तानी होना हमारे लिए सबसे बड़ा खतरा बना

 एल. आई. यू. वालो की नजरो में  इतना शक क्यों होता है
 कोई बताये तो सही हर आतंकवादी  पाकिस्तानी ही क्यों होता है

वो  4 फरवरी 2001 की सुबह  थी
जब मेरे हाथो में रोटी की जगह हथकड़ी थी

जिला कारागार कानपुर अब हमारा नया ठिकाना था
अब तो हवालात और कोर्ट के ही चक्कर लगाना था

मुकदमा दर्ज हुआ ,पेशी हुयी और तारीख पे तारीख मिली
कागज पत्तर , सवाल जवाब , गवाह गवाही की कार्यवाही चली

समाज सेवी वकील पत्रकार यार दोस्त सबके हम शुक्रगुजार
 हमारी जिंदगी अल्लाह के नेक बन्दे जमानातगीर की कर्जदार

यार ये कैसा न्यायतंत्र है जो सिर्फ जाति, धर्म और रंग पर न्याय करता है
यार ये सरहदों का भी क्या चरित्र है जो इन्हें उठाता है वही नजरबन्द होता है

सरबजीत इदरीस और अरशद की बस यही कहानी
न हिंदुस्तानी न पाकिस्तानी एक मुसाफिर है तेरी जिंदगानी
अरशद पाकिस्तानी .............................
अरशद पाकिस्तानी ……………………….


के एम्  भाई
8756011826


नोट -  ( यह कविता पाकिस्तानी नागरिक मो. अरशद आलम के जीवन पर आधारित है जो कि पिछले 20 वर्षो से भारत में बड़ी मुफलिसी में जीवन व्यतीत कर रहे है।  रिक्शा ट्राली खींच कर किसी तरह अपने तीन बच्चो के परिवार का भरण पोषण कर रहे है। इस समय वे न तो भारत के नागरिक है और न ही पाकिस्तान के। बस दो सरहदों के बीच एक मुसाफिर बन कर रह गए है। )

Sunday, October 9, 2011

सूचना के अधिकार क़ानून को लागू हुए 6 वर्ष पूरे


प्रिय साथी,
अभिवादन,
आशा है आप सानंद होंगेसूचना के अधिकार क़ानून के लागू हुए 6 वर्ष पूरा होने पर सूचना का अधिकार एवं उ.प्र.जनहित गारंटी कानून पर युवाओं को साथ लेकर सप्ताहव्यापी कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार की गयी हैआपका सुझाव एवं सहयोग अपेक्षित है
'सूचना का अधिकार अभियान उ.प्र', 'काशी जन सूचना फाउंडेशन' एवं 'साझा संस्कृति मंच' के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम की प्रस्तावित रूपरेखा निम्न है-

16 अक्टूबर- कार्यकर्त्ता बैठक, शाम 4 बजे कन्हैयालाल समिति सभागार रथयात्रा
सम्पर्क- डॉ.अवधेश 9807606000
धनञ्जय 7376848410
वल्लभ 9415256848

17 अक्टूबर- जागरूकता  शिविर, नुक्कड़ नाटक एवं सभा, सुबह 11 से 3 बजे तक  जिला मुख्यालय  वाराणसी
सम्पर्क- राजेश 9335757317
अजय 9935956075
नन्दलाल 9415300520

18 अक्टूबर- जागरूकता  शिविर, सुबह 11 से 3 बजे तक, वाराणसी तहसील के सामने
सम्पर्क- अजय 9935956075
दिनेश 7860525556
राजकुमार 9452884152

19 अक्टूबर- जागरूकता  शिविर, सुबह 11 से 1 बजे तक, वाराणसी नगर निगम (शहीद उद्यान) तथा बी.एच.यू. गेट शाम 4 से 6 बजे तक
संपर्क- डॉ.अवधेश 9807606000
धनञ्जय 7376848410
सुधांशु 7499598539

20 अक्टूबर- जागरूकता  शिविर, सुबह 11 से 2 बजे तक, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी के मुख्यद्वार पर
संपर्क- नीति 9451710298
प्रदीप 9795419891
अंजलि 9696419876

21 अक्टूबर- जागरूकता  शिविर, सुबह 9 से 11 बजे तक, अस्सी घाट तथा सर्व सेवा संघ परिसर, वाराणसी में दोपहर 1 से 3 बजे तक
संपर्क- रविकांत 9498195871
नन्दलाल 9415300520
राजेश मांझी 979076154

22 अक्टूबर- संगोष्ठी 'सूचना का अधिकार-समस्याए और समाधान', दोपहर 1 से 4 बजे तक
संभावित स्थान- गाँधी अध्ययनपीठ, महात्मा गाँधी काशी  विद्यापीठ परिसर, वाराणसी,
मुख्य वक्ता- श्री  रंधीर सिंह पंकज, मुख्य सूचना आयुक्त उ.प्र.
श्री शैलेश  गाँधी, केन्द्रीय सूचना आयुक्त
डॉ.ओ.पी.केजरीवाल, पूर्व केंद्री सूचना आयुक्त
डॉ.एम.एम.अंसारी, पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त
श्री पंकज श्रेयस्कर, संयुक्त रजिस्ट्रार, केन्द्रीय सूचना आयोग

संपर्क- वल्लभ 9415256848
नन्दलाल 9415300520
अजय 9935956075
धनञ्जय 7376848410


सादर
'सृजन'  सामाजिक संस्था
मुगलसराय, वाराणसी (उ.प्र.

क्या ग्रामीण पत्रकारिता का अस्तित्व रह पायेगा...

क्या ग्रामीण पत्रकारिता का अस्तित्व रह पायेगा ... 1990 के बाद जब भारत में पत्रकारिता विशेषकर टीवी पत्रकारिता की शुरुआत हुयी तो पूरे पत्र...