7 मार्च 2011 को भारत की सर्वोच्च न्यायालय ने अरुणा शानबाग की मर्सी किलिंग (इच्छा मृत्यु) के मामले में ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया। अदालत ने अरुणा शानबाग की पत्रकार मित्र पिंकी विरानी की तरफ से दायर याचिका को ख़ारिज़ करते हुए कहा कि इच्छा मृत्यु को कानूनी वैधता दिलाने के जरुरत है। (New law required for legalizing Mercy Killing in India.) उच्चतम न्यायालय के इस फ़ैसले से जहाँ अरुणा शानबाग की पिछले 37 वर्षों से देखभाल कर रहे किंग एडवर्ड मेमोरियल हॉस्पिटल (KEM) के कर्मी खुश हैं वहीं जानकारों और मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं ने इसे मील का पत्थर बताया है। लेकिन इस फ़ैसले का एक और पहलू यह है कि इसने एक बहस को जन्म दिया है कि क्या भारत में इच्छा मृत्यु को कानूनी वैधता प्रदान की जाये कि नहीं।
जिंदगी के 61 बसंत बिता चुकी अरुणा शानबाग आज से सैंतीस साल पहले मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल हॉस्पिटल में पेशे से नर्स थी। चूँकि नर्स का धर्म अपने मरीजों की सेवा-सुश्रुषा करना होता है इसलिए अरुणा भी अपने इस धर्म को बखूबी निभाती थी। बड़े ही शान्त स्वाभाव की, चुलबुली अरुणा को अस्पताल में सभी जानते थे। लेकिन 27 नवंबर 1973 की रात अस्पताल में काम करने वाले सोहलाल वाल्मीकि ने अरुणा को जिंदगी भर के लिए खुद एक मरीज बना दिया। जहाँ अरुणा बतौर नर्स अपनी सेवा से मरीजों की जिंदगी को बेहतर बनाने की कोशिश करती थी उसी अस्पताल के इस सहकर्मी ने अरुणा के जीवन को बर्बाद कर दिया। उसे ख़ुद उस अस्पताल के बेड पर मरीजों जैसी जिंदगी जीने को मजबूर कर दिया जहाँ वो पल-पल मौत से लड़ रही है। तब अरुणा 25 साल की थी। सोहनलाल अस्पताल के डॉग रिसर्च लेबोरेटरी में काम करता था। जहाँ उसे कुत्तों के लिए आने वाला माँस खाने की आदत थी। इसकी जानकारी अरुणा को होने पर उसने सोहनलाल को ऐसा न करने की सख़्त हिदायत दी। यही बात सोहनलाल को नागवार गुजरी। 27 नवंबर 1973 की रात जब अरुणा अपनी ओवर ड्यूटी ख़त्म कर बेसमेंट में चेंज रुम में कपड़े बदल रही थी तभी सोहनलाल ने घात लगाकर अरुणा पर हमला बोल दिया। सोहनलाल ने कुत्तों को बाँधे जाने वाले चैन से अरुणा का गला कस दिया जिससे उसके मस्तिष्क को ऑक्सीजन की पूर्ति रुक गयी और वह कोमा में चली गयी। कॉरटेक्टस को क्षति हुयी, आवाज चली गयी, आँखों की रोशनी भी नहीं रही। बाँधने के बाद सोहनलाल ने अरुणा का अप्राकृतिक यौन शोषण किया। तभी से अरुणा की जिंदगी थम गयी। अरुणा ब्रेन डेड अवस्था में पहुँच गयी जहाँ जिंदा रहना और न रहना बराबर है। दूसरे मरीजों की तरह अस्पताल के एक बेड पर पड़े रहना, जब खिलाया जाये तभी खाना, न किसी से कुछ कह पाना, न कुछ कर पाना। बस यही जिंदगी रह गयी एक ख़ूबसूरत, कर्त्तव्य निष्ठ नर्स अरुणा शानबाग।
अरुणा की इसी दशा को देखकर उसकी पत्रकार मित्र पिंकी विरानी ने उच्चतम न्यायालय में इच्छा मृत्यु की याचिका दायर की। 24 जनवरी 2011 को मामले को संज्ञान में लेते हुए अदालत ने तीन सदस्यीय मेडिकल कमेटी बनायी जो अरुणा की हर तरीके से जाँच करने के बाद अदालत को अपनी रिपोर्ट सौंपे। मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर जस्टिस मारकंडेय काटजू और जस्टिस ज्ञानसुधा मिश्रा की खंडपीठ ने अरुणा शानबाग की इच्छा मृत्यु की अपील को ख़ारिज़ करते हुए कहा कि पीड़िता को इच्छा मृत्यु की जरुरत नहीं है क्योंकि भारत के संविधान में अभी तक यूथेनेसिया पर कोई कानून नहीं है। लेकिन अदालत ने ये भी स्पष्ट कर दिया कि गंभीर रुप से बीमार मरीजों जो असामान्य परिस्थितियों में कोमा में पड़े हैं उन्हें पैसिव यूथेनिसिया की अनुमति दी जा सकती है लेकिन जब तक संसद इस बारे में कोई कानून नहीं बना लेती यह फ़ैसला एक्टिव और पैसिव यूथेनेसिया दोनों ही स्तरों पर लागू रहेगा। वहीं सरकार का पक्ष रखते हुए भारत के अटार्नी जनरल ने कहा कि वैधानिक और संवैधानिक दोनों दशाओं में इच्छा मृत्यु की अनुमति नहीं है।
हालिया अरुणा शानबाग की इच्छा मृत्यु के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने इच्छा मृत्यु पर बहस को सभी की नज़रों में ला दिया है। हालाँकि अदालत ने एक्टिव यूथेनेसिया और पैसिव यूथेनेसिया दोनों ही तरीकों को गैरक़ानूनी माना है। एक्टिव यूथेनेसिया से तात्पर्य ऐसे तरीक़े से है जिसमें मरीज को दर्द और परेशानियों से निज़ात दिलाने के लिए जहरीला इंजेक्शन देकर उसके जीवन को खत्म किया जाता है। जबकि पैसिव यूथेनेसिया वह तरीक़ा है जिसमें मरीज को जिंदा रखने वाली सभी कृत्रिम जीवन रक्षक उपकरणों को हटा लिया जाता है जिससे मरीज की धीरे-धीरे मौत हो सके।
हालाँकि मामले में बहस के दौरान याचिकाकर्ता पिंकी विरानी की वकील ने अरुणा को इच्छा मृत्यु देने के पक्ष में अनेक दलीलें दीं। उनका कहना था कि इन 37 वर्षों के दौरान अरुणा का वजन बहुत कम हो गया है उसकी हड्डियाँ काफी कमजोर हो चुकी हैं। त्वचा में भी संक्रमण हो चुका है। कलाईयाँ अंदर को मुड़ चुकी हैं, आँखों से दिखाई नहीं देता, सुन नहीं सकती, दाँत भी नष्ट हो चुके हैं जिससे अस्पताल में उसे खाना लिक्विड रुप में दिया जाता है। लगातार बेहोशी की हालात से गुजर रही है अरुणा, उसकी दिमाग मृत हो चुका है। उसे दुनिया की कोई सुध नही। और चूँकि सभी को इज्जत से जीने का मूल अधिकार प्राप्त है जो शानबाग के केस में नहीं है। इसलिए उसे इच्छा मृत्यु दे देनी चाहिए। इस पर कोर्ट का कहना था कि चूँकि अरूणा की देखभाल केइएम अस्पताल खुद कर रहा है इसलिए पिंकी विरानी का इससे को वास्ता नहीं।
दूसरी तरफ कानून के जानकारों के मुताबिक भारत में अभी तक इच्छा मृत्यु को संवैधानिक दर्जा नहीं मिला है। परंतु समय-समय पर इस दिशा में प्रयास किये जा चुके हैं। 2002 में संसद सदस्य उमाराव थिकाने ने यूथेनेसिया रेग्युलेशन बिल नामक निजी विधेयक पेश किया था लेकिन संसद ने इस दिशा में थोड़ी भी उत्सुकता नहीं दिखायी। विधि आयोग ने भी सुझाव दिया था कि लाइलाज बीमारी से पीडि़त व्यक्ति को इच्छा मृत्यु की इजाजत दी जानी चाहिए जिसके वर्तमान हालत में थोड़ी भी सुधार की गुंजाइश न हो। अपने विचार व्यक्त करते हुए केंद्रीय विधि मंत्री वीरप्पा मोइली कहा कि इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है।
शीर्ष अदालत के फैसले और विधि मंत्री एवं सरकार के कोर्ट में व्यक्त मंतव्य के बाद इस मुद्दे की संवेदनशीलता से इंकार नहीं किया जा सकता है और सरकार को इस मुद्दे पर तत्परता दिखाते हुए फैसला लेना चाहिए।
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