Sunday, April 17, 2011

लोकपाल बिल : क्या होगा सच सपना


16 अप्रैल 2011 को जन लोकपाल बिल के मसौदे पर पहली ऐतिहासिक बैठक सम्पन्न हुयी। लेकिन इसकी आधारशिला 5 अप्रैल 2011 को नयी दिल्ली स्थित जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे द्वारा आमरण अनशन के माध्यम से रखी गयी। काफी हीला-हवाली के बाद सरकार 9 अप्रैल को रास्ते पर आयी। लेकिन केवल माँगें मान लेना ही कानून नहीं हो जाता। अब आगे देखना होगा कि सरकार वाक़ई इस दिशा में कोई सकारात्मक कदम उठाती है और इस मॉनसून सत्र तक लोकपाल कानून बनाती है या फिर अन्ना हजारे 15 अगस्त को नयी दिल्ली कूच करेंगे। पेश है एक रिपोर्ट।

नयी दिल्ली स्थित जंतर-मंतर सामाजिक धरनों-प्रदर्शनों और आंदोलनों के लिए मशहूर है। लेकिन 5 अप्रैल 2011 जंतर-मंतर के इतिहास में एक ऐतिहासिक तारीख बन गयी। भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए जन-लोकपाल बिल के समर्थन में समाजसेवी अन्ना हजारे आमरण अनशन पर बैठे। पहले ही दिन हजारे को देश के कोने-कोने से भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ लोगों का समर्थन मिला। भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ शुरु हुआ यह आंदोलन पूरे देश में भ्रष्टाचार विरोधी माहौल बनाने में सफल रहा। जंतर-मंतर अगले तीन दिनों तक मिस्र का तहरीर चैक प्रतीत हो रहा था। और इन्हीं चार दिन देश की राजधानी का पारा भी काफी ऊपर रहा। यहाँ का नजारा बिल्कुल मेले जैसा लग रहा था। आंदोलन के शुरु होने के कुछ वक्त गुजरने पर देश भर से जैसी खबरें आने लगीं उससे सरकार के माथे पर बल पड़ने लगा। आखि़रकार अपने तकरीबन 97 घंटे के अनशन के बाद अन्ना हजारे ने अपना अनशन तोड़ा क्योंकि सरकार ने उनकी सारी माँगें मान ली थीं और संसद के इसी मॉनसून सत्र में जन-लोकपाल बिल को कानूनी शक्ल देने का आश्वासन भी दिया।

5 अप्रैल को लगभग 75 वर्षीय अन्ना हजारे गाँधी टोपी लगाये अपनी माँगों के साथ दिल्ली के जंतर-मंतर पर आमरण अनशन पर बैठे। यह अनशन भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ और उनकी समिति द्वारा तैयार किये गये जन लोकपाल बिल को कानूनी रुप दिये जाने के समर्थन में था। अनशन पर बैठने वालों में स्वामी अग्निवेश, किरण बेदी, रमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता अरविंद केजरीवाल और संदीप पाण्डेय आदि थे। हजारे के आह्वान पर पूरे देश में लोगों ने उपवास शुरु किये। लोगों का व्यापक जनसमर्थन अन्ना को मिला। लेकिन जितनी बड़ी संख्या में समर्थन मिला उसकी उम्मीद किसी ने भी नहीं की थी। आंदोलन के समर्थन में लोगों का सड़क पर उतरना, धरना-प्रदर्शन, जुलूस और प्रार्थना सभाओं ने केंद्र की यूपीए-2 सरकार के अंदर हलचल मचा दिया। कहा जाता है कि 'रायसिना हिल्स' के इशारे पर पूरा देश चलता है। वहीं पर बैठकर जनता के प्रतिनिधि देश हित में कानून गढ़ते-बदलते हैं। लेकिन इस आंदोलन से सरकार को लोकपाल बिल पर जमीं धूल को झाड़ने पर मजबूर होना पड़ा। कपिल सिब्बल का आंदोलनकारियों से बार-बार वार्ता करना सरकार के ऊपर पड़ रहे दबाव को स्पष्ट कर रहा था। हालाँकि अन्ना हजारे ने अनशन पर बैठने से पूर्व प्रधानमंत्री को एक पत्र भी लिखा था जिसमें उनसे इस आंदोलन का देश के प्रधानमंत्री के रूप में नेतृत्व करने की बात कही गयी थी। लेकिन जवाब में प्रधानमंत्री ने अन्ना से अनशन न करने की अपील की। बादजूद इसके अपील को दरकिनार करते हुए अन्ना हजारे अनशन पर बैठे। और लगभग 97 घंटे यानी चार दिनों के उपवास के बाद अनशन समाप्त किया। सरकार ने आंदोलनकारियों की माँगों को मानते हुए जन-लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने के लिए दस सदस्यों की एक समिति बनाई। इस संबंध में उसने 9 अप्रैल को एक नोटिफ़िकेशन भी जारी कर दिया जिसकी प्रति आंदोलनकारियों को सौंपी गयी। ताज्जुब है कि सरकार ने अन्ना की माँगों के अनुसार ही इस समिति के पचास प्रतिशत सदस्य सरकार से और शेष पचास प्रतिशत सिविल सोसाइटी के रखे।

गौरतलब है कि अन्ना हजारे का यह आंदोलन एक गैर-राजनीतिक आंदोलन है। आंदोलनकारी अरविंद केजरीवाल के अनुसार यह आंदोलन किसी एक सरकार या दल के विरूद्ध नहीं है। यह आंदोलन हर उस सरकार के खि़लाफ़ है जो भ्रष्टाचार जैसे संवेदनशील मुद्दे पर उदासीन बनी बैठी है जिसके नाँक के नीचे ही बड़े-बड़े घोटाले हो रहे हैं और जिसके मंत्रियों पर इनमें शामिल होने का आरोप लग रहा है। साथ ही आंदोलनकारियों ने सरकार की लोकपाल बिल संबंधी मंशा पर उंगली उठाते हुए बताया कि सरकार द्वारा तैयार किये गये मसौदे में अनेक खामियाँ हैं। सरकारी लोकपाल बिल में लोकपाल मजबूत नहीं है। वह सरकार के हाथों की कठपुतली है। भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ उसे स्वविवेक से कार्रवाई करने का अधिकार नहीं है। आम आदमी को शिकायत करने का भी कोई प्राविधान नहीं है, किसी भी मंत्री-नेता, जज और ऊँचे ओहदों पर बैठे नौकरशाहों के विरूद्ध किसी जाँच के नतीजों पर कार्रवाई करने का अधिकार नहीं है। ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल नामक संस्था ने विश्व के भ्रष्टतम् देशों की सूची जारी की है। इस सूची में भारत तीन पायदान फिसलकर 87वें स्थान पर पहुँच गया है। रिपोर्ट में पेश किये गये आँकड़े बताते हैं कि भारत में सरकारी विभागों में कम से कम पचास फीसदी लोगों को सही काम कराने के लिए भी अधिकारियों को घूस देना पड़ता है। लगभग 315 अरब रूपये प्रतिवर्ष घूस के रूप में नौकरशाहों को खिलाए जाते हैं, जबकि लगभग दस खरब रुपयों की रिश्वत का धंधा पूरे दुनिया भर में होता है। वहीं एक दूसरी रिपोर्ट में भारत एशिया-प्रशांत क्षेत्र के 16 भ्रष्टतम देशों में चैथे नंबर पर है।

ऐसा नहीं है कि हमारी संसद ने इस ओर कोई कदम नहीं उठाये। संसद में लोकपाल संबंधी बिल अभी तक कुल दस बार पेश किये गये। लोकपाल बिल अस्तित्व में लगभग 43 साल पहले सन् 1967 में आया जब प्रशासनिक सुधार आयोग ने इसकी सिफारिश की और सन् 1968 में तैयार विधेयक को पहली बार लोकसभा में पेश किया गया। लेकिन बिल के राज्यसभा में जाने से पहले ही लोकसभा भंग हो गयी और यह विधेयक कानून का रुप न ले सका। तब से बिल को सन् 1977, 85, 89, 96, 98, 2001, 2005 और 2008 में कई बार पेश किया जा चुका है। लेकिन सरकार की कमजोर इच्छाशक्ति के कारण ही लोकपाल विधेयक कानून बनते-बनते रह गया। गौरतलब है कि भारत में भ्रष्टाचार पर नियंत्रण रखने और शासन-प्रशासन की कार्यप्रणाली को भ्रष्टाचार मुक्त एवं पारदर्शी बनाने के लिए लगभग दो दर्जन से भी अधिक कानून बने हैं। इनमें सूचना का अधिकार कानून भी शामिल है जिसके बारे में कहा गया कि यह भ्रष्टाचार के उन्मूलन में सहायक होगी। लेकिन कानून में कड़ी सजा का ना होना भ्रष्टाचारियों के लिए राहत है। जिससे ये कानून भी उन दूसरे कानूनों की तरह ही निष्प्रभावी सा हो चुका है। लेकिन लोकतांत्रिक भारत के इतिहास में ऐसा शायद पहली बार होगा जब किसी विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए गठित संयुक्त समिति में आधे सरकार के और आधे सिविल सोसाइटी के नुमाइंदे होंगे। बहरहाल इस दस सदस्यों वाली समिति की पहली बैठक सोलह अप्रैल को हुयी जिसमें समिति ने सरकारी लोकपाल बिल और सामाजिक कार्यकर्त्ताओं द्वारा तैयार जन-लोकपाल बिल के बिंदुओं पर संक्षिप्त चर्चा की। समिति की अगली बैठक दो मई को निश्चित की गयी है।

अन्ना हजारे ने 9 अप्रैल को अनशन तोड़ते वक्त दिये गये संक्षिप्त संबोधन में कहा कि आजादी की लड़ाई के वक्त भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जैसे देशभक्तों ने इंकलाब जिंदाबाद और वंदेमातरम् के नारे लगाकर जहाँ गोरे अंग्रेजों की नींद उड़ाई थीं वहीं आज दूसरी आजादी के इस आंदोलन में नौजवानों ने ये नारे लगाकर काले अंग्रेजों की नींद उड़ाई है। अगर सरकार मॉनसून सत्र में लोकपाल बिल पास नहीं करती है तो मैं 15 अगस्त से हाथों में तिरंगा लिए फिर से आंदोलन करुँगा। साथ ही ये भी कहा कि लोकपाल विधेयक पारित कराने के लिए अभी लंबी लड़ाई बाकी है। अन्ना हजारे के इन शब्दों से स्पष्ट हो जाता है कि लोकपाल बिल को कानूनी रुप दिलाने की दिशा में भले ही उन्हें पहली सफलता मिल गयी हो लेकिन वे सरकार की मंशा पर नजर रखे हुए है और थोड़ी भी ना-नुकुर होने पर फिर से आंदोलन करने को तैयार है।

वहीं दूसरी तरफ आंदोलन के समाप्त होते ही ऐसा लगता है कि सारे राजनीतिक दल आंदोलनकारियों के खि़लाफ़ लामबंद हो गये हैं। चाहे वे किसी भी दल के हों, सभी एक सुर में इस आंदोलन के औचित्य और आंदोलनकारियों के ऊपर निशाना साध रहे हैं। उनका कहना है लोकपाल बिल से देश के मौजूदा हालात को नहीं बदला जा सकता। आम नागरिकों से जुड़ी समस्याएँ नहीं हल हो सकतीं। इस वक्त देश को लोकपाल की नहीं उनकी पार्टी की जरुरत है जो इस देश को विकास के रास्ते पर ले जा सकने में सक्षम है।

बहरहाल अन्ना हजारे का अनशन समाप्त हो चुका है, लेकिन आंदोलन से लोकपाल बिल के समर्थन में जो माहौल बना, भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ जो लहर पैदा हुई, जो जज्बा लोगों के दिलों में पैदा होता दिख रहा है उससे कहा जा सकता है कि देश की आशाएँ व उम्मीदें और बढ़ गयी हैं। लेकिन एक बात सिविल सोसाइटी के नुमाइंदों को याद रखनी होगी कि लोकपाल बिल तैयार करना और उसे संसद से कानून का अमलीजामा पहनवाना अंगारों पर चलने जैसा होगा। क्योंकि सरकार और सदन दोनों की मंशा महिला आरक्षण बिल पर लंबे समय से हो रही राजनीति और नूरा कुश्ती से साफ जाहिर हो जाती है।

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