1965 का वो साल था कानपुर का वो अस्पताल था
जहाँ जन्म मेरा हुआ वो देश हिंदुस्तान था
कुछ पल ही सही इस देश की आवो हवा पर हमारा भी अधिकार था
वक्त का तकाजा कहे या फिर अपने मुकद्दर का
न चाह के भी हमें सरहद के उस पार जाना था
वही इंसान वही हवा वही पानी पर देश पकिस्तान था
सदिया बीती समय बदला हमने जवानी की दहलीज पे कदम रखा
बचपन बीता जवानी आयी मस्ती छूटी जिम्मेदारी आयी
दोस्ती छूटी छूटी यारी अब तो परिवार की थी बारी
1992 का वो निकाहनामा हमें कबूल था
हम पाकिस्तानी पर हमें हमारा यार हिंदुस्तानी ही मंजूर था
बड़े शौक से हमने उनको फूलो से सजी इस्लामाबाद की डोली में बिठाया
हमने उनको लाहौर घुमाया कराची घुमाया और इस्लामाबाद भी दिखाया
पर न जाने क्यों उन्हें हमारा शहर राश न आया
और रो रो के वतन वापसी का नारा लगाया
उनकी तड़प हम सह न पाए और सरहद तोड़ भारत आये
पर सब कुछ जान के भी यहाँ के लोग हमारे हालात समक्ष न पाये
टूटी झोपड़ी का आशियाना और रिक्सा-ट्राली हमारे जीवन का सहारा बना
एक मुसाफिर की तरह जीना अब हमारे जीवन का फ़साना बना
पर कमबख्त किस्मत ने यहाँ भी हमारा साथ न निभाया
पाकिस्तानी होना हमारे लिए सबसे बड़ा खतरा बना
एल. आई. यू. वालो की नजरो में इतना शक क्यों होता है
कोई बताये तो सही हर आतंकवादी पाकिस्तानी ही क्यों होता है
वो 4 फरवरी 2001 की सुबह थी
जब मेरे हाथो में रोटी की जगह हथकड़ी थी
जिला कारागार कानपुर अब हमारा नया ठिकाना था
अब तो हवालात और कोर्ट के ही चक्कर लगाना था
मुकदमा दर्ज हुआ ,पेशी हुयी और तारीख पे तारीख मिली
कागज पत्तर , सवाल जवाब , गवाह गवाही की कार्यवाही चली
समाज सेवी वकील पत्रकार यार दोस्त सबके हम शुक्रगुजार
हमारी जिंदगी अल्लाह के नेक बन्दे जमानातगीर की कर्जदार
यार ये कैसा न्यायतंत्र है जो सिर्फ जाति, धर्म और रंग पर न्याय करता है
यार ये सरहदों का भी क्या चरित्र है जो इन्हें उठाता है वही नजरबन्द होता है
सरबजीत इदरीस और अरशद की बस यही कहानी
न हिंदुस्तानी न पाकिस्तानी एक मुसाफिर है तेरी जिंदगानी
अरशद पाकिस्तानी .............................
अरशद पाकिस्तानी ……………………….
के एम् भाई
8756011826
जहाँ जन्म मेरा हुआ वो देश हिंदुस्तान था
कुछ पल ही सही इस देश की आवो हवा पर हमारा भी अधिकार था
वक्त का तकाजा कहे या फिर अपने मुकद्दर का
न चाह के भी हमें सरहद के उस पार जाना था
वही इंसान वही हवा वही पानी पर देश पकिस्तान था
सदिया बीती समय बदला हमने जवानी की दहलीज पे कदम रखा
बचपन बीता जवानी आयी मस्ती छूटी जिम्मेदारी आयी
दोस्ती छूटी छूटी यारी अब तो परिवार की थी बारी
1992 का वो निकाहनामा हमें कबूल था
हम पाकिस्तानी पर हमें हमारा यार हिंदुस्तानी ही मंजूर था
बड़े शौक से हमने उनको फूलो से सजी इस्लामाबाद की डोली में बिठाया
हमने उनको लाहौर घुमाया कराची घुमाया और इस्लामाबाद भी दिखाया
पर न जाने क्यों उन्हें हमारा शहर राश न आया
और रो रो के वतन वापसी का नारा लगाया
उनकी तड़प हम सह न पाए और सरहद तोड़ भारत आये
पर सब कुछ जान के भी यहाँ के लोग हमारे हालात समक्ष न पाये
टूटी झोपड़ी का आशियाना और रिक्सा-ट्राली हमारे जीवन का सहारा बना
एक मुसाफिर की तरह जीना अब हमारे जीवन का फ़साना बना
पर कमबख्त किस्मत ने यहाँ भी हमारा साथ न निभाया
पाकिस्तानी होना हमारे लिए सबसे बड़ा खतरा बना
एल. आई. यू. वालो की नजरो में इतना शक क्यों होता है
कोई बताये तो सही हर आतंकवादी पाकिस्तानी ही क्यों होता है
वो 4 फरवरी 2001 की सुबह थी
जब मेरे हाथो में रोटी की जगह हथकड़ी थी
जिला कारागार कानपुर अब हमारा नया ठिकाना था
अब तो हवालात और कोर्ट के ही चक्कर लगाना था
मुकदमा दर्ज हुआ ,पेशी हुयी और तारीख पे तारीख मिली
कागज पत्तर , सवाल जवाब , गवाह गवाही की कार्यवाही चली
समाज सेवी वकील पत्रकार यार दोस्त सबके हम शुक्रगुजार
हमारी जिंदगी अल्लाह के नेक बन्दे जमानातगीर की कर्जदार
यार ये कैसा न्यायतंत्र है जो सिर्फ जाति, धर्म और रंग पर न्याय करता है
यार ये सरहदों का भी क्या चरित्र है जो इन्हें उठाता है वही नजरबन्द होता है
सरबजीत इदरीस और अरशद की बस यही कहानी
न हिंदुस्तानी न पाकिस्तानी एक मुसाफिर है तेरी जिंदगानी
अरशद पाकिस्तानी .............................
अरशद पाकिस्तानी ……………………….
के एम् भाई
8756011826
नोट - ( यह कविता पाकिस्तानी नागरिक मो. अरशद आलम के जीवन पर आधारित है जो कि पिछले 20 वर्षो से भारत में बड़ी मुफलिसी में जीवन व्यतीत कर रहे है। रिक्शा ट्राली खींच कर किसी तरह अपने तीन बच्चो के परिवार का भरण पोषण कर रहे है। इस समय वे न तो भारत के नागरिक है और न ही पाकिस्तान के। बस दो सरहदों के बीच एक मुसाफिर बन कर रह गए है। )
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