Saturday, November 18, 2017

क्या ग्रामीण पत्रकारिता का अस्तित्व रह पायेगा...

क्या ग्रामीण पत्रकारिता का अस्तित्व रह पायेगा ...
1990 के बाद जब भारत में पत्रकारिता विशेषकर टीवी पत्रकारिता की शुरुआत हुयी तो पूरे पत्रकारिता जगत में परिवर्तन आना शुरु हुआ। लेकिन महज 10 वर्ष के भीतर यानि वर्ष 2000 के बाद पत्रकारिता का स्वरूप बहुत बदला हुआ दिखा। शहरी पत्रकारिता मशीनों के आने से आसान हुयी तो चुनौती भी बढ़ी। समाज में भी स्वीकार्यता बढ़ी लेकिन ग्रामीण अंचलों में काम करने वालों के लिए दौर कठिन ही होते चले गये। अखबारों के अंक क्षेत्रीय हुए तो ग्रामीण पत्रकारों की जिम्मेदारियाँ बढ़ी। उसके साथ नया करने और मशीनी होने का भी दबाव बढ़ा।
            भारत गाँवों का देश कहा जाता है जहाँ की तीन-चौथाई आबादी अब भी गाँवों में बसती है। समय बीतता गया तो ग्रामीण अंचलों के विकास का भी स्वरूप बदला। इसी तरह पत्रकारिता में भी बदलाव आये। ये बदलाव मशीनी स्तर पर ज्यादा थे। अखबारों के जिला स्तर पर अंक निकलने लगे। पहले जहाँ तहसील स्तर के पत्रकार होते थे अब वहाँ थाना और ब्लॉक स्तर पर पत्रकार होने लगे। क्योंकि अंक क्षेत्रीय होने से जरूरत भी ज्यादा पड़ी। हर स्थिति में ग्रामीण पत्रकार खबर संकलन और भेजने का काम करने लगा। पहले बेसिक फोन। फिर फैक्स। फिर इंटरनेट। उसके बाद ब्रॉडबैंड और अब मोबाइल, टैब का दौर आ गया था। लेकिन ग्रामीण पत्रकारों के समक्ष चुनौतियाँ कई स्तर बढ़ती चली गयीं।
            इस पेशे को लेकर ग्रामीण अंचल में समस्याएँ अधिक हुयी हैं। समस्याएँ दो हैं- आर्थिक और सामाजिक। क्योंकि एक तो श्रम का रिटर्न (मेहनताना) अच्छा नहीं मिलता। यानि अनियमित तनख्वाह। दूसरा खुद अखबार/संस्थान से पहचान पूरी नहीं मिलती जिससे सामाजिक स्तर पर सम्मानजनक पहचान न तो अखबार देता है और न ही समाज। संस्थान या कहा जाय कि उनके क्षेत्रीय कार्यालय सिर्फ अपने कार्यालय के लोगों को पत्रकार और सहयोगी मानता है जिलों के सुदूर क्षेत्र में संस्थान के लिए काम करने वाले संवादसूत्र के रूप में देखा जाता है। आर्थिक आधार पर भी ऐसे पत्रकार कम (की तरह) संवादसूत्रों से विभेद किया जाता है। जितनी मेहनत होती है उसका सही मायने में अर्थ (वेतन) नहीं मिलता। इसीलिए आज ग्रामीण अंचलों में पत्रकारिता करने वाले पत्रकार कम संवादसूत्र पत्रकारीय कर्म को द्वितीयक और मोटे आर्थिक स्रोत वाले कार्य को प्रमुखता देते हैं। क्योंकि यदि ऐसा न किया जाये तो कई दफा उनके और परिवार के सामने दो जून की रोटी के लाले पड़ जाते हैं। रमन मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त  और ग्रामीण पत्रकारिता के जाने-माने नाम पी साईनाथ भी कहते हैं कि ग्रामीण पत्रकारों क बहुत ही कम वेतन पर गुजारा करना पड़ता है, जिसकी वजह से उन पर दबाव ज्यादा होता है। पत्रकार संगठनों की कमी और कॉन्ट्रैक्ट (ठेका) आधारित नौकरी के चलते पत्रकारों की स्वतंत्रता खत्म हो रही है।
            संस्थान से पहचान और सम्मान के स्तर पर भी विभेद होता दिखता है जिसका असर उनके खबरों की गुणवत्ता में भी झलकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि अनेक ऐसी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय, सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएँ हैं जो पत्रकारों को उनके काम के बदले पुरस्कार देकर उनका सम्मान और उत्साहवर्धन करती हैं। लेकिन संस्थान अपने ग्रामीण अंचल के पत्रकारों के लिए कुछ नहीं करता। वह अपने सिटी ऑफिस से चंद नामों को निहारता है और उन्हीं में से नाम भेज देता है। जबकि यदि ऐसे मौके ग्रामीण पत्रकार को दिये जायें तो निश्चित वह आगे और भी अच्छे परिणाम दे सकते हैं। इसके अलावा ग्रामीण पत्रकारिता में खबरों के संकलन से लेकर भेजने तक की चुनौती होती है। आज तो स्थिति यह है कि इतने के बावजूद दबाव के साथ अपेक्षा की जाती है कि कोई नयी धमाकेदार और सनसनीखेज जानकारी परोसती खबर भेजी जाये। क्योंकि अखबार बाजार के नजरिये से अब खुद को देखकर आगे बढ़ रहा है जहाँ मुनाफा महत्वपूर्ण है। और यह तभी सम्भव है जब कुछ नया हो। कोई धमाकेदार और सनसनीखेज खबर हो। बिल्कुल वैसे जैसे शैक्षणिक संस्थानों में पत्रकारिता के छात्रों को बताया जाता है कि आदमी कुत्ते को काट ले तो सबसे बड़ी खबर होगी। तभी अखबार की बिक्री ज्यादा होगी और माँग बढ़ेगी। माँग बढ़ेगी तो मुनाफा भी बढ़ेगा। वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी कहते हैं कि आज स्थिति यह है कि संस्थानों को सिर्फ पैसे चाहिए। यदि इसके एवज में विज्ञापनों को खबरों की शक्ल में बनाने के पैसे मिल रहे हैं तो संस्थान वो भी काम कर रहा है। वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार कहते हैं कि ग्रामीण पत्रकार ही क्या, ग्रामीण पत्रकारिता ही अब समाप्त की जा रही है। आज प्रश्न पूछने की कला समाप्त हो रही है और दूर ग्रामीण इलाके में कोई भूख से मर जाता है तो ग्राउंड रिपोर्टिंग के बजाय दिल्ली के स्टूडियो में चंद नेता पूरे मामले पर अपना ज्ञान सामाजिक, आर्थिक विशेषज्ञ के रूप में दे देता है। राजस्थान के इलाके में 16 दिनों से भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसान व उनका परिवार भूमि सत्याग्रह कर रहे होते हैं तो भी शहरी मीडिया में कोई हलचल नहीं होती। गाँव के बाहर जाकर पढ़ने के बजाय गाँव के स्कूल को इंटरमीडिएट तक करने और शिक्षकों की उपलब्धता की माँग करते हरियाणा में धरने पर बैठी छात्राओं को कुछ सप्ताह बाद शहरी मीडिया को दिखाने का मौका मिलता है। नॉर्थ ईस्ट के प्रदेशों में महीनों तक संदिग्ध उग्रवादी पुलिस की गोली का शिकार होता है और महीनों लोग विरोधस्वरूप मृतक का अंतिम संस्कार नहीं करते हैं तथा कर्फ्यू जैसा माहौल रहता है लेकिन कहीं कोई खोज खबर नहीं होती। ये ग्रामीण पत्रकारिता और पत्रकार के अस्तित्व पर बहुत बड़ी चोट है। ग्रामीण पत्रकारों को कभी-कभी खबरों को निकालने में शारीरिक व मानसिक वेदना एवं जान गंवाने तक का खामियाजा भी झेलना पड़ता है। अब ग्रामीण पत्रकार भी करे क्या। कहाँ जाए अपने व्यथा की शिकायत करने। वह भी बेरोजगार होने, सामाजिक सम्मान खोने, विशेष होने का तमगा छूटने आदि की फिक्र से घिरा होता है। इस सोच के पोषक आज हम बनते जा रहे हैं और इसीलिए इसका असर हमारे काम पर पड़ता नजर आ रहा है। यह परिवर्तन ज्यादा नकारात्मक ही हुआ है अबतक। सकारात्मक कम रहा है।
            इतने भयानक स्थितियों के बावजूद उम्मीद की कुछ किरण नजर आती है। अनेक लोगों ने खुद से प्रयास कर ग्रामीण इलाकों में सूचनाओं के प्रचार-प्रसार के लिए अखबार शुरु किया और ग्रामीण क्षेत्रवासियों को उनमें लगाया जिसका परिणाम भी अच्छा देखने को मिला। फिर भी सरकार को इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठाने की जरूरत है। मजीठिया वेज बोर्ड को सरकार को सबसे पहले मजबूती और कड़ाई से लागू करना चाहिए ताकि कम से कम आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। इसके बाद कानूनी सुरक्षा प्रदान करने के लिए ठोस कदम उठाये ताकि कोई रामचंद्र छत्रपति, राजदेव, हेमंत, जगेन्द्र और गौरी लंकेश जैसे हत्याएँ न हों।
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सिद्धार्थ यादव
पी.जी. डिप्लोमा इन टी.वी. जर्नलिज्म
जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली
सम्प्रति- जनसंदेश टाइम्स, वाराणसी में पत्रकार और ब्यूरो चीफ

मो- 7678815312

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